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पाकिस्तान में हिन्दी की हत्या

• विवेक शुक्ला

य़शपाल, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती,कृष्णा सोबती, देवेन्द्र सत्यार्थी, उपेन्द्र नाथ अश्क,नरेन्द्र कोहली समेत दर्जनों हिन्दी के लेखक देश के बंटवारे से पहले मौजूदा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के स्कूलों-कॉलेजों में हिन्दी सीख चुके थे या उन्होंने अपना रचनाकर्म शुरू कर दिया था।

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता डा.विजय कुमार मल्होत्रा को याद है कि उनके लाहौर के डी.ए.वी. स्कूल में हिन्दी पढ़ने वालों में हिन्दू और सिख छात्रों के साथ कुछ मुसलमान बच्चे भी होते थे। अब लगभग 88 वर्ष के हो रहे विजय कुमार मल्होत्रा बताते हैं- “ पंजाब प्रांत की सांस्कृतिक राजधानी लाहौर में 1947 तक कई हिन्दी प्रकाशन सक्रिय थे। इनमें राजपाल एंड संस खास था। हिन्दी के प्रसार- प्रचार के लिए कई संस्थाएं जुझारू प्रतिबद्धता के साथजुटी हुई थीं। इनमें धर्मपुरा स्थित हिन्दी प्रचारिणी सभा का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। इसके संस्थापक अध्यक्ष श्री रूपलाल शर्मा थे। वे हिन्दी के अध्यापक भी थे। हिन्दी प्रचारणी सभा स्कूलों-कॉलेजों में हिन्दी की वाद-विवाद प्रतियोगिताएं आयोजित करवाती थी।”

कब हो गई शत्रु की जुबान

पाकिस्तान के दुनिया के मानचित्र में 14 अगस्त,1947 को आते ही हिन्दी हो गई शत्रु की जुबान। इसके साथ ही पाकिस्तान में हिन्दी की हत्या हो गई। हिन्दी के प्रकाशन बंद हो गए। दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिन्दी के प्रोफेसर रहे डा. नरेन्द्र मोहन का परिवार भी 1947 में  लाहौर से दिल्ली आया था। वे लाहौर में हिन्दी पढ़ रहे थे। मंटो के साहित्य पर बीती आधी सदी से अध्ययन कर रहे डा. नरेन्द्र मोहन बताते हैं कि निश्चित रूप से उस दौर में पंजाब में उर्दू और पंजाबी का वर्चस्व था। पर, हिन्दी ने अपने लिए जगह बनाई हुई थी। हिन्दी पढ़ी-लिखी जा रही थी। लाहौर से ‘आर्य गजट’ और ‘प्रकाश’ तथा अमर भारत नाम से हिन्दी के अखबार प्रकाशित हो रहे थे। इनकी प्रसार संख्या हजारों थी। बंटवारे के बाद स्कूलों- कॉलेजों में हिन्दी की कक्षाएं लगनी समाप्त हो गई। लाहौर के गर्वंमेंट कॉलेज, फोरमेन क्रिश्चन कॉलेज, खालसा कॉलेज, दयाल सिंह कॉलेज,डीएवी वगैरह में हिन्दी की स्नातकोत्तर स्तर तक की पढ़ाई की व्यवस्था थी।

कहां पढ़ी भीष्म साहनी- आनंद बख्शी ने हिन्दी

लाहौर की तरह, पश्चिम पंजाब के एक दूसरे खास शहर रावलपिंडी में डीएवी कॉलेज तथा गॉर्डन कालेज में भी हिन्दी पढ़ी-पढ़ाई जा रही थी। दिनमान और फिर संडे मेल अखबार के कार्यकारी संपादक रहे त्रिलोक दीप ने हिन्दी रावलपिंडी के अपने  स्कूल में पढ़नी शुरू कर दी थी। गॉर्डन कॉलेज की वार्षिक पत्रिका में हिन्दी का सेक्शन अलग से होता था। रावलपिंडी में रहकर ही बलराज साहनी, भीष्म साहनी तथा हिन्दी फिल्मों के बेहतरीन गीतकार आनंद बख्शी ने हिन्दी जानी-समझी थी। भीष्म साहनी ने रावलपिंडी में मार्च,1947 में हुए भयावह सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि पर अपना कालजयी उपन्यास ‘तमस’ लिखा था। ‘तमस’ कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग, संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिन्दुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षो की कथा हो जाती है। भीष्म साहनी की विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ भी बेजोड़ है। भीष्म साहनी जी  ने एक बार एक इटरव्यू के दौरान बताया था “ पंजाब के सभी शहरों में हिन्दी पढ़ाए जाने की व्यवस्था थी। हमने वहां पर रहते हुए हिन्दी में लेखन चालू कर दिया था। हालांकि हिन्दू परिवारों की भी मातृभाषा पंजाबी थी, पर वे स्कूलों-कॉलेजों में हिन्दी अवश्य पढ़ते थे। ”पाकिस्तान से आए हिन्दी के रचनाकारों की भाषा में उर्दू तथा पंजाबी का मिश्रण होता था। इन्होंने ‘किन्तु-परन्तु’ के स्थान पर ‘अगर-मगर’ लिखने से परहेज नहीं किया।

 मुल्तान से लेकर खैबर तक हिन्दी

पंजाब के तारीखी शहर मुल्तान में आर्य समाज और सनातन धर्म की तरफ से चलाए जाने वाले शिक्षण संस्थानों में हिन्दी अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाई जाती थी। अब 90 पार कर गए हरिद्वार के सामाजिक कार्यकर्ता श्याम सुंदर नागपाल बताते हैं कि आपको कोई भी पाकिस्तान से आया मुल्तानी नहीं मिलेगा जिसे हिन्दी का कायदे का ज्ञान ना हो। मुल्तान को पाकिस्तान के सबसे बड़े शहरों में से एक माना जाता है।हिन्दी की पढ़ाई पंजाब के बड़े शहरों के अलावा डेरा इस्माइल खान, जिसे अब खैबर पख्तूनख्वा सूबा कहा जाता है, में भी हो रही थी।दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिन्दी के प्रोफेसर डा. हरीश चोपड़ा कहते हैं कि उनकी मां डेरा इस्माइल खान से थीं। वह हिन्दी अच्छी लिख पढ़ लेती थीं। उन्होंने वहां ही हिन्दी सीखी थी। बहुत साफ है कि हिन्दी अपनी जगह बना रही थी। वैसे खैबर पख्तूनख्वा की भाषा पश्तो है। ये सरहदी गांधी का इलाका माना जाता है।

 हिन्दू महिलाएं जरूर पढ़ती थीं हिन्दी

सिंध सूबे की राजधानी कराची, बलूचिस्तान और पाकिस्तान के शेष भागों में भी हिन्दी पढ़ी-लिखी जा रही थी। हिन्दू परिवारों की महिलाएं तो हिन्दी का अध्ययन घर में रहकर ही कर लेती थीं। उन्हें घर के बड़े-बुजुर्ग हिन्दी पढ़ा दिया करते थे। डा. नरेन्द्र मोहन कहते हैं कि हिन्दू परिवारों की महिलाओ के हिन्दी पढ़ने की एक वजह ये थी ताकि वे रामचरित मानस, गीता और दूसरी धार्मिक पुस्तकें हिन्दी में पढ़ लें। लेकिन, पाकिस्तान बनने के साथ ही अन्य स्थानों पर भी हिन्दी पढ़ने-लिखने की सुविधाएं खत्म हो गईं। कराची यूनिवर्सिटी का हिन्दी विभाग भी काफी समृद्ध हुआ करता था।ये बात समझ से परे है कि पाकिस्तान के निर्माण के साथ ही उधर हिन्दी को समाप्त करने के लिए चले अभियान पर अभी तक गहराई से अध्ययन क्यों नहीं हुआ?

हिन्दी बनेगी बिन्दी भारत के मस्तक की

उस दौर में पंजाब में हिन्दी के प्रसार-प्रचार में लगे उत्साही हिन्दी सेवियों ने नारा दिया था ‘हिन्दी बनेगी बिन्दी भारत के मस्तक की’। डा. विजय कुमार मल्होत्रा कहते हैं कि तब हिन्दी ने देश की संपर्क भाषा का स्थान नहीं लिया था। तब हिन्दी को लेकर इस तरह का प्रेम और निष्ठा रखना कोई सामान्य बात नहीं थी। जाहिर है, पाकिस्तान में हिन्दी को शत्रु की भाषा मान लेने के बाद इसके भविष्य पर अंधेरा छा गया। पाकिस्तान के इतिहास के पन्नों को खंगालेंगे तो समझ आ जाएगा कि वहां पर भाषा को लेकर सरकारी नीति शुरूआत से ही बेहद तर्कहीन रही।

पाकिस्तान में उर्दू को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला। एक उस भाषा को, जो पाकिस्तान की मिट्टी की जुबान ही नहीं थी। उर्दू को देश की राष्ट्रभाषा थोपने के चलते पाकिस्तान को आगे चलकर बड़ा नुकसान हुआ। भाषा के सवाल पर पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) की अनदेखी पाकिस्तान की दो-फाड़ होने की मुख्य वजह रही। अब पंजाब प्रांत में पंजाबी की अनदेखी के सवाल पर आंदोलन चल रहा है। पंजाब विधानसभा तक में पंजाबी में संवाद पर निषेध है। यकीन नहीं  होता कि धरती के जुबान के साथ इतना घोर अनादर होगा।

फिर पाक में लौटती हिन्दी

हालांकि पाकिस्तान में हिन्दी को पढ़ने-पढ़ाने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए, पर वह फिर भी अपने लिए जगह बना रही है।  हिन्दी फिल्मों और भारतीय टीवी सीरियलों के चलते दर्जनों हिन्दी के शब्द आम पाकिस्तानी की आम बोल-चाल में शामिल हो गए हैं। अब पाकिस्तानियों की जुबान में आप ‘जन्मतिथि’ ‘भूमि’ ‘विवाद’, ‘अटूट’, ‘विश्वास’, ‘आशीर्वाद’, ‘ चर्चा’, ‘पत्नी’, ‘ शांति’ जैसे शब्द सुन सकते हैं। इसकी एक वजह ये भी समझ आ रही कि खाड़ी के देशों में लाखों भारतीय-पाकिस्तानी एक साथ काम कर रहे हैं। दोनों के आपसी सौहार्दपूर्ण रिश्तों के चलते दोनों एक-दूसरे की जुबान सीख रहे हैं।

दुबई,अबूधाबी, रियाद, शारजहां जैसे शहरों में हजारों पाकिस्तानी काम कर रहे हैं भारतीय कारोबारियों की कंपनियों, होटलों, रेस्तरां वगैरह में। इसके चलते वे हिन्दी के अनेक शब्द सीख लेते हैं।इस बीच, पाकिस्तानियों  की हिन्दी को सीखने की एक वजह भारतीय़ समाज और संस्कृति को और अधिक गहनता से जानने की इच्छा भी है। ये इंटरनेट के माध्यम से हिन्दी सीख रहे हैं। और खुद पाकिस्तान के भीतर भी हिन्दी को जानने-समझने-सीखने की प्यास तेजी से बढ़ रही है।

 चीनियों को हिन्दी पढ़ाते पाकिस्तानी

पिछले कुछ वर्षो से इस्लामाबाद  स्थित  नेशनल यूनिवर्सिटी आफ मॉडर्न लैंगवेज्ज (एनयूएमएल) में हिन्दी की कक्षाएं शुरू हुई हैं। एनयूएमएल के हिन्दी विभाग में पांच टीचर हैं। इधर हिन्दी में डिप्लोमा कोर्स से लेकर पीएचडी तक करने की सुविधा है। लेकिन इधर गिनती के ही छात्र दाखिला लेते हैं। एनयूएमएल में हिन्दी के साथ-साथ पाकिस्तान में बोली जानी बहुत सी अन्य भाषाओं के अध्यापन की व्यवस्था है। यहां पर हिन्दी पढ़ा रही हैं, वो महिलाएं जो विवाह से पहले भारत में रहती थीं। विवाह के बाद पाकिस्तान चली गईं। यहां से चीनी और अरब देशों के राजनयिक हिन्दी सीखते हैं। एनयूएमएल की हिन्दी विभाग की प्रमुख डा. नसीमा खातून हैं। उन्होंने नेपाल की त्रिभुवन यूनिवर्सिटी से  हिन्दी साहित्य में पीएचडी की है। उनके प्रोफाइल से साफ है कि वह आगरा से संबंध रखती हैं। वह आगरा यूनिवर्सिटी में पढ़ी हैं। उनके अलावा इस विभाग में शाहिना जफर भी हैं। वह मेरठ यूनिवर्सिटी की छात्रा रही हैं। वह कंट्रेक्ट पर इधर पढ़ाती हैं। इसी क्रम में नसीम रियाज भी हैं। वह पटना यूनिवर्सिटी से एमए हैं। जुबैदा हसन भी इधर कंट्रेक्ट पर पढ़ा रही हैं। वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की छात्रा रही हैं। एक बार दिल्ली में पाकिस्तान हाई कमीश्नर रहे  शाहिद चौधरी ने बताया था कि चूंकि हिन्दी पाकिस्तान के पड़ोसी मुल्क भारत की अहम भाषा है, इसलिए उनका देश इसकी अनदेखी नहीं कर सकता।

हिन्दी और पाक के हिन्दू

कराची और सिंध क्षेत्र में ही पाकिस्तान के हिन्दुओं की ठीक-ठाक आबादी भी है। इनमें हिन्दू धर्म ग्रंथों को हिन्दी में पढ़ने की लालसा रहती है। जाहिर है, समूचे सिंध और कराची में हिन्दी अध्यापन की व्यवस्था न होने से तमाम लोगों को कठिनाई होती होगी।उधर, पाकिस्तान के हिन्दू नौजवानों में अपने धर्म ग्रंथों को हिन्दी में पढ़ने की  चाहत बढ़ रही है। ये अपने बड़े-बुजुर्गों से हिन्दी सीख रहे हैं। चंदर कुमार पाकिस्तान के सिंध से संबंध रखते हैं। अब दुबई में रहते हैं। एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ में काम करते हैं। वे बता रहे थे कि हमें हिन्दी अपने बुजुर्गों से सीखने को मिल रही हैं। अब हम हिन्दी अपनी अगली पीढ़ी को पढ़ाने की स्थिति में हैं। सिंध और कराची मे रहने वाले हिन्दू, सिंधी के माध्यम से हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं। पाकिस्तान में कम से कम मिडिल क्लास से संबंध रखने वाले हिन्दू तो हिन्दी सीखते ही हैं। हालांकि पाकिस्तान के हिन्दुओं की मातृभाषा हिन्दी नहीं है, पर वे हिन्दी से भावनात्मक रूप से जुड़ते हैं।

पाकिस्तान में हिन्दी अब पहले वाली स्थिति में तो नहीं आ सकती है। जिधर धरती की भाषाओं का ही अपमान और अनदेखी हो, वहां पर हिन्दी के लिए बहुत संभावनाएं नहीं हैं।

विवेक शर्मा की फ़ेसबुक वॉल से

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