सुनील दत्त का बस कंडक्टर से एक्टर और सांसद तक का सफर

On Sunil Dutt's birth anniversary, remembering the gentleman actor ...

सुनील दत्त का जीवन एक मिसाल है जिसमें बंटवारे का दंश झेलने वाले परिवार का युवक संघर्ष के विभिन्न पड़ावों से गुजरता हुआ बस कंडक्टर की मामूली नौकरी शुरू कर देश का मंत्री के पद तक पहुंचता है। आज सुनील दत्त की 90वीं जयंती है। आइए एक नजर डालते हैं इस बेहतर अभिनेता और उससे भी ज्यादा एक अच्छे इंसान के जीवन सफर पर।

दीना, पाकिस्तान में जन्मे

सुनील दत्त का जन्म 6 जून 1929 को दीना, झेलम जिला (पंजाब प्रांत, वर्तमान में पाकिस्तान) के खुर्द गांव में बलराज दत्त के रूप में हुआ था। जब वे पांच वर्ष के थे, तब पिता का निधन हो गया था।18 साल के हुए तो देश विभाजन के हिंदू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगों को देखा। उनके परिवार को उनके पिता के दोस्त याकूब ने बचाया था। इसके बाद परिवार यमुनानगर के नजदीक मंडौली गांव में आ गया ।उसके बाद में, वह लखनऊ चले गए, जहां उन्होंने अमिनाबाद गली में काफी समय बिताया।

बेस्ट की बसों में कंडक्टर का काम किया

बॉम्बे (अब मुंबई) में जय हिंद कॉलेज से स्नातक करने के बाद सुनील ने शहर के बेस्ट परिवहन विभाग में काम किया। जहां उन्हें 120 रुपये महीना मिला करता था।
उन्होंने रेडियो सिलोन में भी काम किया जहां वह फिल्मी कलाकारों का साक्षात्कार लिया करते थे। प्रत्येक साक्षात्कार के लिए उन्हें 25 रुपए मिलते थे।

‘रेलवे प्लेटफॉर्म’ से अभिनय करियर की शुरुआत  

वर्ष 1955 में हिंदी फिल्म “रेलवे प्लेटफॉर्म” के साथ सुनील ने अभिनय करियर की शुरुआत की।

मदर इंडिया से मिला स्टारडम

वर्ष 1957 की क्लासिक फिल्म महबूब खान “मदर इंडिया” में नरगिस के साथ सह-अभिनय किया। स्टारडम तक पहुंचे। सुनील दत्त और नरगिस की सह-अभिनीत फिल्म मदर इंडिया जबरदस्त हिट हुई।
सुनील दत्त की किस्मत सितारा चमका। इस फिल्म में उनका किरदार ऐंटी हीरो का था। करियर के शुरूआती दौर में ऐंटी हीरो का किरदार निभाना किसी भी नये अभिनेता के लिये जोखिम भरा हो सकता था लेकिन उन्होंने इसे चुनौती के रूप में लिया।

मदर इंडिया के सेट पर आग लगी थी, तब सुनील दत्त नरगिस को आग से बचाने के लिए आग में कूद गए। जिसके चलते दोनों एक दूसरे के प्यार में पड़ गए।
इसके बाद नरगिस से विवाह हुआ।

रेशमा और शेरा ने कर दिया कंगाल

सुनील दत्त ने अभिनय के बाद फिल्म निर्माण में भी हाथ आजमाया। उन्होंने अपने बैनर अजंता आर्ट्स के तले यादें (1964), मन का मीत (1968) और रेशमा और शेरा (1971) जैसी फिल्में बनाईं। लेकिन रेशमा और शेरा ने उनको कंगाल कर दिया था।

60 लाख का कर्ज चढ़ गया

सुनील दत्त ने जब रेशमा और शेरा फिल्म की प्लानिंग की थी तो वे इसे 15 दिन के अंदर राजस्थान में शूट करना चाहते थे । एस. सुखदेव डायरेक्ट थे और सुनील दत्त-वहीदा रहमान लीड रोल में थे। विनोद खान, राखी गुलजार और अमिताभ बच्चन का भी फिल्म में अहम रोल था। यूनिट के सभी 100 लोग जैसलमेर के करीब पोचिना गांव में टेंट में रहे। फिल्म का ज्यादातर हिस्सा शूट हो चुका था। लेकिन इसी दौरान सुनील दत्त ने इसके रशेस देखे, जो उन्हें पसंद नहीं आए। इसके बाद उन्होंने एस. सुखदेव को हटाकर खुद डायरेक्शन का जिम्मा हाथ में लिया और पूरी फिल्म दोबारा शूट की। जहां इसकी शूटिंग 15 दिन में पूरी होनी थी। वहां इसमें दो महीने का वक्त लग गया।  सुनील दत्त ने एक इंटरव्यू में कहा था, “जब तक फिल्म पूरी हुई, तब तक मुझपर 60 लाख रुपए का कर्ज हो चुका था। इसके अलावा, मैं एक्टर के तौर पर पांच फिल्में भी ठुकरा चुका था।”

लोग मारने लगे थे ताने

रेशमा और शेरा फिल्म फ्लॉप हुई तो बकायादार सुनील दत्त के पास पैसा मांगने आने लगे। सुनील ने एक बार बताया था, “मैं 42 साल का हो चुका था और तीन बच्चों का पिता था। पैसे मेरे पास थे नहीं। मेरी 7 में से 6 कार बिक चुकी थीं। सिर्फ एक बचाई थी, जो बेटियों को स्कूल छोड़ने और वापस लाने के काम आती थी। मेरा घर गिरवी रखा हुआ था। मैंने बस से आना-जाना शुरू कर दिया था। तब लोग ताने मारते हुए कहते थे- क्यों सुनील दत्त, सब खत्म हो गया तेरा? अभी बस में जाना शुरू कर दिया?” इस बुरे दौर में घर के अंदर मौजूद नरगिस का प्रीव्यू थिएटर काम आया, जो उन्होंने कुछ वक्त पहले बनाया था। इसमें फिल्ममेकर्स को उनकी फिल्मों के प्रीव्यू और डबिंग के लिए बुलाया जाने लगा।”

दो साल बाद सुधरे थे हालात

सुनील दत्त के लिए दो साल बहुत मुश्किल भरे रहे। लेकिन इसके बाद उनकी किस्मत एक बार फिर जागी। उन्होंने ‘हीरा’ (1973), ‘गीता मेरा नाम’ (1974), ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ (1974) और ‘नहले पर दहला’ (1976) जैसी कई फिल्मों में काम किया, जो बॉक्सऑफिस पर खूब चलीं।

वर्ष 1950 और 1960 के दशक के अंत में, उन्होंने स्वयं को हिंदी सिनेमा के प्रमुख अभिनेताओं में से एक के रूप में स्थापित किया और साधना (1958), मुझे जीने दो (1963), वक्त (1965), पड़ोसन (1967), हमराज़ (1967), इत्यादि कई हिट फिल्में दीं। उन्होंने वर्ष 1964 की फिल्म “यादों” में निर्देशक और अभिनेता के रूप में भी काम किया है। उन्होंने वर्ष 1981 की फिल्म रॉकी में बेटे संजय दत्त को लॉन्च किया। फिल्म की रिलीज से कुछ ही समय पहले उनकी पत्नी नरगिस का कैंसर की बीमारी से निधन हो गया था।

समाज सेवा शुरू की

उन्होंने अपनी पत्नी नरगिस की याद में कैंसर पीड़ित रोगियों के इलाज के लिए नरगिस दत्त फाउंडेशन की स्थापना की। फाउंडेशन ने ‘इंडिया प्रोजेक्ट’ (विकृति चेहरे वाले बच्चों के इलाज के लिए संगठन जो ‘ऑपरेशन स्माइल’ के समान है) को भी प्रायोजित किया।
वर्ष 1982 में, महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें एक वर्ष के लिए ‘मुंबई का शेरिफ’ नियुक्त किया।
वर्ष 1988 में, उन्होंने वैश्विक demilitarization के लिए अपील करने के लिए जापान के नागासाकी से हिरोशिमा तक यात्रा की। सुनील दत्त ने राजनीति में प्रवेश किया और कांग्रेस पार्टी से लोकसभा के सदस्य बने। मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री भी बने।

पुरस्कार व सम्मान

सुनील दत्त को अपने सिने करियर में दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनमें मुझे जीने दो 1963 और खानदान 1965 शामिल है।उन्हें भारतीय फिल्म उद्योग में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए वर्ष 1995 में फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
वर्ष 2005 में फाल्के रत्न अवॉर्ड प्रदान किया गया। सुनील दत्त ने लगभग 100 फिल्मों में अभिनय किया। सुनील दत्त 25 मई 2005 को इस दुनिया को अलविदा कह गये। उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया।

नवीन शर्मा की फेसबुक से साभार
Photo – HT

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